नई दिल्ली। मुहर्रम (Muharram) के दिन मुस्लिम समुदाय (Muslims) के लोग गमजदा होकर शोक मनाते हैं। इस दिन मुसलमान लोग हुसैन की शहादत को याद करते हैं और उनके प्रति अपना शोक व्यक्त करते हैं। इस दिन देश भर में ताजिये का जुलूस निकाला जाता है। ताजिये (Tazia) का जुलूस इमामबारगाह से निकलता है और कर्बला में जाकर खत्म होता है। कहा जाता है ताजिये की शुरुआत मुस्लिम शासक तैमूर के दौर में हुई थी।
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इमाम हुसैन की कब्र के प्रतीक के रूप में बनाई जाने वाली बड़ी-बड़ी कलाकृतियों को ताजिया (Tazia) कहा जाता है। इसको बनाने में सोने, चांदी, लकड़ी, बांस, स्टील, कपड़े और कागज का प्रयोग किया जाता है। मुहर्रम की 10वीं तारीख को हुसैन की शहादत की याद में गम और शोक के प्रतीक के तौर पर जुलूस के रूप में ताजिया निकाला जाता है।
तैमूर मूल रूप से कजाकिस्तान का था और मुस्लिमों के शिया समुदाय से ताल्लुक रखता था। ईरान, अफगानिस्तान, इराक और रूस के कुछ हिस्सों को जीतने के बाद तैमूर 1398 ईस्वी के दौरान हिंदुस्तान पहुंचा था। फिर दिल्ली के शासक मुहम्मद बिन तुगलक को हराकर खुद को शहंशाह घोषित कर दिया और दिल्ली की गद्दी पर राज करने लगा। वैसे तो तैमूर हर साल मुहर्रम मनाने के लिए इराक जाता था, लेकिन एक साल युद्ध में जख्मी होने की वजह से हकीमों ने उसे सफर करने से मना किया और इस कारण वह उस साल मुहर्रम मनाने इराक नहीं जा पाया।

तैमूर को जब हिंदुस्तान में ही मुहर्रम (Muharram) मनाना पड़ा तो उसके दरबारियों को अपने शहंशाह को खुश करने के लिए कुछ अलग हटकर करने के बारे में सोचा। उन्होंने इराक के कर्बला में स्थित इमाम हुसैन की कब्र जैसी कृतियां बनाने का आदेश दिया और तब शिल्पकारों ने तैयार किए ताजिये। उस वक्त बांस की खपंचियों पर कपड़ा लगाकर यह ढांचा तैयार किया गया और उसे ताजिया कहा गया। ताजियों (Tazia) को फूलों से सजाया गया और तैमूर के महल में रखा गया। इस तरह मुहर्रम पर हर साल ताजिया (Tazia) बनाने की परंपरा चल पड़ी। उसके बाद जैसे तैमूर को खुश करने के लिए पूरे देश के मुस्लिमों में होड़ सी मच गई और पूरे देश में ताजिये बनने लगे।
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