डेस्क। इन दिनों ग्रेटर नोएडा का एक मामला काफी चर्चा में है। सिरसा गांव के विपिन ने दहेज में 35 लाख रुपये की मांग पूरी न होने पर ज्वलनशील पदार्थ डालकर अपनी पत्नी निक्की को 21 अगस्त को जिंदा जला दिया था। हर साल सैकड़ों महिलाएं दहेज (dowry) की वजह से प्रताड़ना झेलती हैं।
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भारत में दहेज प्रथा (dowry) की शुरुआत मूल रूप से शादी के बाद बेटियों को आर्थिक मदद देने के एक तरीके के रूप में की गई थी। सदियों से चली आ रही यह प्रथा धीरे-धीरे डिमांड में बदल गई, जिसने परिवारों पर भारी दबाव डाला और शोषण को जन्म दिया। दहेज निषेध अधिनियम 1961 द्वारा गैरकानूनी घोषित किए जाने के बावजूद यह प्रथा गांव से लेकर शहरों तक सभी जगह जारी है।
भारत में दहेज (dowry) को लेकर दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 बना था, जो कि 1 जुलाई 1961 को लागू किया गया था। यह अधिनियम बताता है दहेज लेना या देना एक दंडनीय अपराध है और इसे रोकना बहुत जरूरी है। दहेज विरोधी कानूनों को मजबूत करने और किसी महिला के पति या उसके परिवार द्वारा की जाने वाली क्रूरता से निपटने के लिए 1983 में नए प्रावधान जोड़े गए, जैसे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498ए और आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 198ए।

बढ़ते अपराधों की वजह से इसे लेकर खास प्रावधान बनाए गए हैं। आईपीसी की धारा 304बी दहेज हत्या से जुड़ी है। इसका मतलब है कि अगर शादी के बाद 7 साल के भीतर किसी महिला की मौत होती है और उसमें दहेज (dowry) की वजह सामने आती है, तो इसे दहेज हत्या माना जाएगा। इस अपराध में कम से कम 7 साल और अधिकतम उम्रकैद तक की सजा हो सकती है।
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