बिहार। बिहार आने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारी में लगा हुआ है। ऐसे में राज्य के राजनीतिक माहौल में एक और नाम गूंज रहा है। यह नाम है कर्पूरी ठाकुर का। Karpoori Thakur को जननायक भी कहा जाता है। समस्तीपुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली से लेकर पटना में तेजस्वी यादव के संबोधन तक सभी दलों के नेता कर्पूरी ठाकुर को जरूर याद कर रहे हैं।
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कर्पूरी ठाकुर का जन्म 1924 में पिठौंझिया गांव में हुआ था। इसे अब कर्पूरीग्राम के नाम से पहचाना जाता है। एक साधारण परिवार से उठकर कर्पूरी ठाकुर सामाजिक न्याय और समानता के प्रतीक बन गए। पिछड़े समुदायों में गिनी जाने वाली जाति से होने के बावजूद भी वे बिहार के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक हस्तियों में से एक के रूप में उभरे। कर्पूरी ठाकुर 1970 के दशक में दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे।

उन्होंने उस वक्त बिहार की कमान संभाली जब राजनीतिक प्रभुत्व ज्यादातर उच्च जाति के अभिजात वर्ग के हाथों में था। राजनीति से पहले कर्पूरी ठाकुर भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल थे। उन्हें अपनी भागीदारी के लिए कारावास भी हुई थी। स्वतंत्रता के बाद उन्होंने चुनावी राजनीति में प्रवेश किया और 1952 में विधायक बने। उनका यह राजनीतिक सफर लगभग चार दशकों तक चला जिसके दौरान उन्होंने समानता, शिक्षा सुधार और सामाजिक सशक्तिकरण की आवाज के रूप में काम किया।
उन्होंने कई बड़े सुधार लागू किए जैसे कि मैट्रिक परीक्षा में अंग्रेजी को अनिवार्य विषय के रूप में हटाना, शराबबंदी करना और साथ ही सरकारी ठेकों में बेरोजगार इंजीनियरों को प्राथमिकता देना। उनका सबसे बड़ा योगदान 1976 में मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिश के आधार पर पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण नीति को लागू करना था।
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