नई दिल्ली। भारत की संसद (Parliament) को अक्सर एक ऐसी जगह माना जाता है जहां केवल सांसदों की आवाजें गूंजती हैं। आम जनता भले सीधे संसद के भीतर जाकर सवाल न पूछ सके लेकिन भारतीय लोकतंत्र का ढांचा इतना बंद भी नहीं है कि नागरिक की आवाज वहां तक पहुंच ही न सके। असल सवाल यह है कि यह आवाज संसद के भीतर कैसे पहुंचती है ?
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आम नागरिक चाहे तो अपने क्षेत्र के सांसद को पत्र, ईमेल, ज्ञापन या जनता दरबार के जरिए, अपना मुद्दा दे सकता है। अगर सांसद उसे गंभीर मानते हैं तो वे प्रश्नकाल में सरकार से सवाल पूछ सकते हैं, शून्यकाल में मुद्दा उठा सकते हैं, स्पेशल मेंशन देकर चर्चा की मांग कर सकते हैं, किसी बिल या बहस के दौरान मुद्दा रख सकते हैं, यानी संसद का दरवाजा जनता के लिए सीधे नहीं, पर प्रतिनिधि के जरिए खुला जरूर है।

आज के समय में कई मुद्दे RTI में खुलासे, कोर्ट में दायर जनहित याचिका, या बड़े जन अभियान के जरिए सीधे ही राजनीतिक बहस में बदल जाते हैं। जब कोई मुद्दा सुर्खियों में आता है तो सांसद उसे शून्यकाल या बहस में उठाने के लिए मजबूर हो जाते हैं। यानी जनता सीधे भले न बोले, पर आवाज इतनी तेज हो कि संसद को सुननी पड़े, यह भी लोकतंत्र का ही एक तरीका है।
संसद में बोलने, नोटिस देने और चर्चा की मांग करने का अधिकार केवल सांसदों को है। नागरिक न गैलरी से बोल सकता है, न बहस का हिस्सा बन सकता है लेकिन वह मुद्दा जरूर उठा सकता है जिसे सांसद बहस में बदल सकते हैं। यानी सीधा रास्ता भले ही बंद है, लेकिन आवाज के लिए कई खिड़कियां खुली हैं।
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