यहां से हुई थी होली की शुरूआत, जानें रहस्यमय राज

उरई। लोगो मे आपसी मतभेद मिटाने व गिले शिकवे भूलकर गले लगाने का त्योहार होली पर्व की शुरूवात जनपद की सीमा से लगे टिकौली गांव से हुई थी। झांसी जिले मे आने वाले इस गांव मे आज भी वह टीला मौजूद है। जहां पर भक्त प्रहलाद को जलाकर मारने के लिए अग्निकुण्ड तैयार किया गया था।

इस अग्निकुण्ड मे भक्त प्रहलाद को लेकर उसकी बुआ होलिका बैठी थी। जिसे अग्नि देवता से वरदान प्राप्त था कि वह चुनरी पहनकर अगर आग मे बैठेगी तो उसे आग जला नही पायेगीं इसके बाद भी हालिका भस्म हो गई और भक्त प्रहलाद आग की लपटो से जीवित वाहर निकल आये। होली के साथ कई गाथाएं जुडी हुई है। जो इस अनूठे त्योहार की रोचकता और रोमांच को बढाती है इसमे मुख्य कथा है होलिका दहन की जब भी होलिका दहन का समय नजदीक आता है। इस कथा के चलते बुन्दलेखण्ड का रहस्य रोमांच से भरे आकर्षण का केन्द्र बन जाता है।

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होलिका दहन की गाथा जिले के कोटरा थाना क्षेत्र के तहत आने वाले सलाघाट के उस पार जनपद झांसी का डिकौली गांव के बीच वेतवा नदी है सलाघाट पर अथाह जलराशि का सौन्दर्य निहारने के लिए पहुचने वाले पर्यटको को इस पार से ही अर्थात सलाघाट से ही डीकांचल पर्वत दिखाई देने लगता है जिसके नीचे डिकौली गांव बसा है। कहा जाता है कि एरच के असुरशासक हिरणाकश्यप ने इसी डीकांचल पर्वत की चोटी पर रास रमण के लिए बिलासग्रह बनवा रखा था।

डींकाचल की चोरी पर पुराना दालान दूर से ही दिखा जाता है। लोग इसी दालान को हिरणाकश्यप के विलासग्रह का अवशेष बताते है डीकांचल पर्वत के नीचे वेतवा नदी प्रभावित है जिसमे बहुत गहरा जल कुण्ड है कुछ वर्ष पहले बैराज के लिए सर्वे करने आये माताटीला बांध के इंजीनियरो ने इसकी गहराई 30 मीटर से अधिक मापी थी। इस कुण्डं के बारे मे लोग बताते है कि हिरणाकश्यप ने प्रहलाद से नाराज होने पर डीकांचल पर्वत से इस कुण्ड मे उसे डूबने के लिए फेका था लेकिन प्रहलाद पर भगवान की कृपा होने के कारण वह गच गए थे और उनका बाल भी बांका नही हो सका था। आज भी प्रहलाद की याद मे यह कुण्डं प्रहलाद कुण्ड कहलाता है।

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गांव डिकौली मे ही प्रहलाद की बुआ होलिका स्वंय अग्निरोधी चुनरी ओढकर आई थी। ताकि जब वह प्रहलाद को लेकर जलती आग मे बैठे तो उसे कोई नुकसान ना हो लेकिन परमात्मा की महिमा के चलते ऐन मौके पर हवा के झोंके से उनके तन से चुनरी हटकर प्रहलाद से शरीर मे लिपट गई। जिसके कारण प्रहलाद तो नही जले लेकिन होलिका कि जलकर मौत हो गई।

हालाकि अगर देखा जाये तो इस कहानी मे कितनी सच्चाई है इसका कोई साक्ष्य नही है। मगर यह कथा पीढी दर पीढी पूरे विश्वास से साथ दोहराई गई है। जिससे आज भी यह क्रम जारी है। इतना ही नही डीकांचन पर्वत पर अगर जाकर देखा जाये तो आज भी प्रहलाद गुफा है। जिसके बारे मे स्थानीय लोगो के द्वारा बताया जाता है कि इसी गुुफा के अन्दर वह परमात्मा की साधना करते थे।

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