माँ का माँ होना !

उस असीम समुंदर में कई गोते लगाने का जी था,

आज मैं बहुत खुश थी ,
उस असीम समुंदर में कई गोते लगाने का जी था,
गहराइयों में जाकर उस ख़ुशी के समुंदर में बस जाने का जी था
कारण नहीं पूछेंगे आप?
ज़रूर पूछेंगे! उसके बिना ये लिखा हुआ अपनी पहचान खो देगा। उन कई लिखे हुए और काली स्याही से छपे हुए वर्णमाला के टुकड़ों के बीच ।
हाँ तो खुश इसलिए थी की मेरी माँ आज माँ नहीं थी ।
अब ये कैसी बात हुई भला ?
माँ अगर माँ नहीं तो क्या है ?
और क्या वो कुछ और हो सकती है अपनी संतानो के होते हुए?
क्या उसे हक़ है सच मे कुछ और होने का ?
या शायद बस एक स्त्री होने का !
पर सुबह का सूरज कुछ और कह रहा था ,
माँ ने नाश्ता ज़रूर बनाया था , पर आज हमारा इंतेज़ार नहीं किया था ।
अट्ठारह साल या यूँ कहूँ बीस साल बाद , उसने हमसे पहले खा लिया था ।
पेट भर तो नहीं ही खाया होगा उसने शायद ,
मेरे अंदर की बेटी जिसने हमेशा एक सी पहचान वाली माँ को देखा है ,ये सोचती रही।
पर जब मैंने उसे खाय हुए खाने को हज़म करने की आवाज़ निकालते सुना…सोच ख़त्म हुई ।
मुझे मेरे लिखने का विषय मिला।
मेरी ख़ुशी का कारण मिला ।
हाँ यही…की आज मेरी माँ ,मेरी माँ ना होकर सिर्फ़ खुद थी ,एक स्त्री थी ।
दुपहर में एक और बड़ी दिल को छू लेने वाली घटना ने मुझे प्रसन्न किया था। मेरे एक मित्र ने जो मुझसे काफ़ी अरसे बाद मिला था बोला था की “तुम बिल्कुल अपनी माँ की तरह खूबसूरत हो ।”
ध्यान से शब्द पढ़े हैं ना आपने ? ऐसे ही आगे तो नहीं पढ़ने लगे ?
उसने मुझे माँ की तरह कहा , जिसको माँ की कोख से निकलते ही पिता की तरह,और आजतक पिता की तरह ही बताया गया था । कुछ अजीब सा नहीं लगता ? आप कहेंगे लगता तो है पर काफ़ी कुछ अजीब होता है इस संसार में।धरती गोल है ये भी सालों पहले लोगों को अजीब ही लगा होगा ।इसकी अपनी ख़ुशी थी और इस दुनिया में लाने वाली स्त्री की तरह या उसकी परछाई भर सा होने में अपनी ।
इससे तो बस कुछ पलों का सुकून मुझे छूकर सालों के अंधेरे में वापस लौट गया था । पर फिर वो स्त्री , सही पढ़ा आपने माँ नहीं वो स्त्री , बाज़ार गई । असीम चेष्ठाओं का बाज़ार ,इच्छाओं की पूर्ति का बाज़ार ।
नहीं नहीं आप ग़लत समझ रहे हैं, बाज़ार जाने से नहीं खुश थी वो ।
(वो तो हमेशा ही जाती है , बार बार जाती है , कई बार जाती है, सामान लाती है , पैसे खर्चती है ।)
बल्कि इससे कि उसके घंटों बाद लौट के आने पर , पता चला कि वो सिर्फ़ अपने लिए सामान लाई।
जी हाँ ,आप समझ रहें हैं ना बात की गहराई को ?उन्नीस साल से माँ बनी हुई वो औरत उसी दिन ,उसी पल स्त्री हो गई । एक व्यक्तित्व को जन्म दिया उसने ना की अपनी चौथी संतान को ।
कितना मुश्किल रहा होगा उसके लिए …पति ,बच्चों ,परिवार के लिए समर्पित साड़ी को छोड़कर खुद के लिए जीन्स पहनना …..
( ये क़िस्सा कभी और सुनाऊँगी )
वो स्त्री आज उस बाज़ार मैं खुद के लिए थी ,और इसलिए उसकी ये परछाई बहुत खुश थी ।
एक चाह थी उसमें, एक नया नया जन्मा व्यक्तित्व।
(कितनी गहरी रही होगी वो चाह जिसने उसको अपनी बेटियों के लिए ना लेने दिया और खुद के लिए लेने को
विवश किया । पंख लग गए होंगे उसे जो समाज ने और उसने खुद भी कतर दिए , बेड़ियों से आज़ाद सा लगा होगा ना उसे ?)
पर अगले ही पल लौट गए मेरे सारे सुख । याद है वो पुराना काला अंधेरा ? उसी में जब वो बस माँ थी ।
उसने अपने लाए हुए कपड़े मुझे देने की बात कही ।
अब आप सोचेंगे मेरी माँ के कपड़े मैं कैसे पहन सकती हूँ ? तो बताया ना मैंने कुछ समय पहले उसने अपनी सारी शक्ति बटोरकर जींस पैंट की दुनिया मैं कदम रख लिया था , काफ़ी योगदान उसमें उसके पति और बहनों का भी था। लाज़मी है…मेरे पिता और मौसियों का ।
मेरे मना करने पर मुझे अपना सामान देने के कारण ढूँढने लगी , बिना सिर पैर के कारण , बिना तुक के । अंधेरे मैं तीर चला रही थी की कोई कारण तो उसकी इस हठी बेटी की समझ में आ जाए । बहुत नाराज़ होने पर अंत में उसने वो बोल दिया जिसने मुझे उस काले अंधेरे में ढकेल दिया , जिसका मुझे कहीं ना कहीं ज़रा सा डर तो ज़रूर था ।
“तुम लोगों के लिए कुछ नहीं ला पाई ,अच्छा नहीं लग रहा । यही वाला ले लो वरना मैं भी नहीं पहन पाऊँगी..”लोगों से उसका मतलब मुझसे और मेरी बहनों से था ।
ऐसे याद हैं मुझे ये शब्द जैसे लिख दिए गए हों मेरे स्मृति पटल पे काली स्याही से । हाँ वही स्याही,कभी ना छूटने वाली । ठीक इसी तरह बोला था उसने…कभी भूल सकती हूँ क्या मैं इन्हें? इन जकड़े हुए शब्दों को ।
इसने मुझे प्रसन्नता से ज़्यादा दुःख दिया , गहरा दुःख ,कई गुना ज़्यादा गहरा दुःख ।
(इस बार बिना आपके पूछे कारण बताऊँगी मैं!)
क्यूँकि मेरी माँ को सिर्फ़ चंद पलों के लिए स्त्री होने का दुःख हुआ…पछतावा हुआ…
अब मैं भी दुखी हूँ , पछतावे मैं हूँ कि काश मैं दुबारा उस स्त्री को देख पाऊँ जिसे ढंग से गले भी नहीं लगा सकी मैं और वो जाकर छुप गई मेरी माँ के अंदर, बहुत अंदर ….

लेखिका: किंजल

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