चीन बहाना खोज रहा है

चीन की विस्तारवादी नीतियों का सबसे पहला शिकार भारत हो सकता है। पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया के देश भी हैं लेकिन उन्हें लेकर चीन ज्यादा चिंता में नहीं रहता है। उसको पता है कि चीन और इन देशों की सभ्यता और नस्ल एक है, इसलिए देर-सबेर ये देश चीन के वर्चस्व को स्वीकार करेंगे। ऐसी भविष्यवाणी सैमुअल पी हटिंगटन ने सभ्यताओं के संघर्ष के अपने सिद्धांत में भी की है। सो, असली चिंता भारत को करनी है और अमेरिका सहित पूरे सभ्य संसार को करनी है।
यूक्रेन पर रूस के हमले में चीन अपने लिए मौका देख रहा है। वह अलग अलग तरीके से इस बर्बर हमले को न्यायसंगत ठहरा रहा है और उसे किसी तरह हिंद प्रशांत से जोडऩे का प्रयास कर रहा है। इससे ऐसा लग रहा है कि वह रूस-यूक्रेन जंग के बहाने हिंद प्रशांत में टकराव बढ़ाने का बहाना खोज रहा है। अन्यथा दोनों की तुलना करना का कोई मतलब नहीं है। चीन के उप विदेश मंत्री ली युचेंग ने नाटो की तुलना क्वाड से की है। चीन पहले भी हिंद प्रशांत में बने चार देशों के समूह क्वाड को लेकर चिंता जताता रहा है और इसे नाटो के विस्तार का प्रतिरूप कहता रहा है। लेकिन एक जंग के बीच चीन का यह कहना कि ‘यूक्रेन एशिया प्रशांत का आईना हैÓ, मामूली बात नहीं है।
ध्यान रहे अमेरिका और दूसरे देश, जिसे हिंद प्रशांत कहते हैं उसे चीन एशिया प्रशांत ही कहता है, जैसा पहले कहा जाता था। इसे लेकर उसके उप विदेश मंत्री ली युचेंग ने कहा है- यूक्रेन एशिया प्रशांत का आईना है और यह देखना होगा कि हम कैसे एशिया प्रशांत में यूक्रेन जैसे खतरे को रोक सकते हैं। उन्होंने क्वाड यानी चार देशों- अमेरिका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया के समूह की तुलना नाटो से की है और कहा है कि अमेरिका ऐसे छोटे छोटे ब्लॉक बना कर नाटो का विस्तार कर रहा है। यानी जहां वह सीधे नाटो को नहीं ले जा सकता है वहां दूसरे छोटे समूह बना कर नाटो को पहुंचा रहा है। चीन की इस बात से भारत के कान खड़े होने चाहिए क्योंकि यह बड़े खतरे का संकेत है।
अगर यूक्रेन पर रूस के हमले को बारीकी से देखें तो उसकी शुरुआत भी ऐसे ही हुई थी। पहले यूक्रेन के नाटो का सदस्य बनने की चर्चा शुरू हुई और उसके साथ ही रूस ने नाटो का खतरा दिखाना शुरू किया। उसने यूक्रेन के नाटो में शामिल होने को लेकर चेतावनी जारी की। यूक्रेन नाटो में शामिल भी नहीं हुआ, लेकिन रूस ने हमला कर दिया। इसका मतलब है कि नाटो का खतरा दिखाना एक बहाना था। उसे किसी तरह से यूक्रेन पर हमला करना था। जैसे उसने क्रीमिया पर कब्जा किया था उसी तरह उसे पूर्वी यूक्रेन के डोनबास इलाके पर कब्जा करना था, जिसके बारे में उसका दावा था कि इस इलाके में रूसी बोलने वालों की बहुतायत है, उनकी रूसी नागरिकों के साथ नस्ली समानता है और वह ऐतिहासिक रूप से रूस का हिस्सा रहा है। सोचें, क्या चीन इसी तरह का दावा भारत के कई इलाकों को लेकर नहीं करता है? उसने 70 साल पहले तिब्बत पर कब्जा किया और तब से अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत बता कर उस पर अपना दावा करता है। पिछले दिनों उसने अरुणाचल के कई जगहों के नए तिब्बती नाम रखे। वह भारत के कई इलाकों के नागरिकों से भाषायी व नस्ली समानता तलाश रहा है और कुछ खास भौगोलिक क्षेत्र पर इतिहास का हवाला देकर दावा कर रहा है।
यूक्रेन पर हमला करने के लिए रूस ने इसी तरह से शुरुआत की थी और दूसरे चरण में नाटो का खतरा दिखाना शुरू किया था। ऐसा लग रहा है कि चीन ने भी पहला चरण पूरा कर लिया है और दूसरे चरण में क्वाड को नाटो जैसा बता कर उसका भय दिखाना शुरू किया है। असल में चीन और रूस जैसी महाशक्तियों का अमेरिका के विरोध का सबसे अच्छा बहाना नाटो है। वे हमेशा कहते रहे हैं कि अमेरिका 10 हजार किलोमीटर से आकर एशिया और यूरोप में अपनी ताकत बढ़ा रहा है, जबकि अपने आसपास भी किसी को नहीं फटकने देता है। इस सिलसिले में शीतयुद्ध के समय 1962 के क्यूबा मिसाइल संकट का हवाला दिया जाता है, जब रूस ने क्यूबा में मिसाइल तैनात करना चाहा था और अमेरिका ने पूरे क्षेत्र की घेराबंदी करके, तीसरे विश्वयुद्ध  की चेतावनी देकर रूस को वहां से हटाया था। अमेरिका नहीं चाहता था कि उसके पड़ोस में रूस पहुंचे। उसी तरह रूस और चीन नहीं चाहते हैं कि उनके पड़ोस में अमेरिका पहुंचे। रूस का कहना है कि नाटो के सहारे अमेरिका उसकी सीमा तक पहुंचना चाहता है तो चीन का कहना है कि क्वाड के जरिए अमेरिका उसकी सीमा तक पहुंच रहा है।
यह महाशक्तियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई है, जिसमें छोटे देशों के मुश्किल में फंसने का खतरा रहता है। जैसे अमेरिका और रूस के झगड़े में यूक्रेन फंसा है क्या उस तरह अमेरिका और चीन के टकराव में भारत फंस सकता है? इस आशंका को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता है। चीन की विस्तारवादी नीतियों का सबसे पहला शिकार भारत हो सकता है। पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया के देश भी हैं लेकिन उन्हें लेकर चीन ज्यादा चिंता में नहीं रहता है। उसको पता है कि चीन और इन देशों की सभ्यता और नस्ल एक है, इसलिए देर-सबेर ये देश चीन के वर्चस्व को स्वीकार करेंगे। ऐसी भविष्यवाणी सैमुअल पी हटिंगटन ने सभ्यताओं के संघर्ष के अपने सिद्धांत में भी की है। सो, असली चिंता भारत को करनी है और अमेरिका सहित पूरे सभ्य संसार को करनी है। चीन जिस तरह से पूरे दक्षिण चीन सागर पर कब्जा करने की रणनीति पर काम कर रहा है वह पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। हिंद प्रशांत में अमेरिका के सैन्य कमांडर एडमिरल जॉन सी एक्विलिनो ने अपनी एक ताजा रिपोर्ट में कहा है कि चीन ने दक्षिण चीन सागर में जो कृत्रिम द्वीप बनाए थे उनमें से तीन को पूरी तरह से सैनिक ठिकाने में बदल दिया है। उन्होंने कहा कि पहले किए गए वादे को तोड़ कर चीन ने इन द्वीपों पर एंटी शिप और एंटी एयरक्राफ्ट मिसाइल तैनात किए हैं, लड़ाकू विमान तैनात किए हैं और जैमिंग उपकरण लगाए हैं। सोचें, दक्षिण चीन सागर को सैनिक ठिकाना बनाना कितने बड़े खतरे का संकेत है!
दक्षिण चीन सागर में चीन अपना सैनिक ठिकाना बना रहा है। भारतीय सीमा से सटे तिब्बत के गावों में नागरिकों को सैन्य प्रशिक्षण दे रहा है, सड़कें और पुल बनवा रहा है, रेल लाइन बिछा रहा है और हवाईअड्डे बना रहा है। भारतीय सीमा पर रोबोटिक सैनिक तैनात कर रहा है। चीन से बह कर भारत में आने वाली नदियों के अपर स्ट्रीम पर बांध बना कर पानी को हथियार में तब्दील कर रहा है। भारत की सीमा में घुसपैठ कर रहा है और संप्रभु भारतीय सीमा के अंदर के क्षेत्र को नए तिब्बती नाम दे रहा है। यह सब करने के बाद क्वाड की तुलना नाटो से करते हुए यह छिपी हुई धमकी दे रहा है कि एशिया प्रशांत में यूक्रेन जैसे हालात न बनें इसके बारे में सोचना चाहिए। सोचें, यह धमकी किसके लिए है? क्या अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के लिए या भारत के लिए? कहने की जरूरत नहीं है कि भारत को इसे गंभीरता से लेना चाहिए। या तो वह खुल कर क्वाड कूटनीति करे और अमेरिका व यूरोप के साथ जाए या फिर पुरानी गुट निरपेक्ष नीति पर लौटे और अपने को सैनिक रूप से ताकतवर बनाए। दोनों तरफ आधा-आधा रहने की न कूटनीति कामयाब होगी और न सामरिक नीति सफल होगी।

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